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Class 8.39 summary नामकर्म के वर्णन में मुनि श्री ने समझाया कि हम मकानादि बनाने को तो महत्व देते हैं पर जो चीजें हमें मिली हैं पर हमने बनाई नहीं हैं उनकी importance नहीं समझते जैसे नामकर्म के कारण स्वयं संचालित यह शरीर या पर्याप्तियाँ - जिनके कारण से हम जी पाते हैं, दुनिया देख पाते हैं और जिन्हें कोई हमारे लिए बना नहीं सकता अगर पर्याप्ति जैसे अत्यन्त दुर्लभ चीज पर भी हमारा ध्यान नहीं होगा तो फिर हमें कभी नामकर्म के महत्व के माध्यम से अपने कर्म फल का ज्ञान नहीं हो सकेगा दूसरी नई चीजें या एक नया संसार बनाने की कोशिश में जो हमें पुण्य के उदय से मिला है हम उन सब चीजों को भी अच्छे ढंग से manage कर नहीं पा रहे हैं और अधिकतर आदमी रोगी, बीमार, असमय में मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं अपर्याप्तक जीव तो श्वास के 18वें भाग में ही मरण को प्राप्त हो जाता है सभी एक से पाँच इन्द्रिय जीव अपर्याप्तक हो सकते हैं मनुष्य भी अपर्याप्तक होता है वह मनुष्य आयु का बंध करके, मनुष्य गति के उदय से मनुष्य का शरीर मिलने पर भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाता और श्वास के 18वें भाग में ही जी करके मर जाता है ऐसे सम्मूर्च्छन जीव शरीर में उत्पन्न और नष्ट होते ही रहते हैं सम्यग्ज्ञान से हमें समझ आता है कि जो हमारे पास है वह बहुत दुर्लभ है और वह दूसरों के पास नहीं है और जिन चीजों की हम tension ले रहा हैं वे हमारे लिए जरुरी नहीं हैं हमें पर्याप्तियों और इनसे बनने वाले दस प्राणों पर ध्यान देना चाहिए इन्हें सुरक्षित करना चाहिए क्योंकि इनसे ही जीवन चलता है अपने प्राणों का घात करके कुछ दूसरा करना बुद्धिमत्ता नहीं है हमारे पुत्र, पुत्रियाँ, सम्बन्धी आदि सभी जीव अपने कर्म से जीते हैं नामकर्मों के फल से ही यह सारा का सारा शरीर और उसके अन्दर के सब system चलते हैं इसमें कुछ भी distrub होने पर, हम कुछ नहीं कर सकते Tattwarthsutra Website: https://ttv.arham.yoga/ हमने जाना कि हर पर्याप्ति एक-एक अंतर्मुहूर्त में और सभी पर्याप्तियाँ भी एक अंतर्मुहूर्त में पूर्ण होती हैं इसके बाद जीव में योग्यता की पूर्णता आती है जो आयु कर्म पर्यंत बनी रहती है हमने जाना कि स्थिर नामकर्म के उदय के कारण से पर्याप्तियों के माध्यम से परिवर्तित हुई रस, रुधिर आदि धातुएँ सही ढंग से शरीर में बनती और जरूरत के स्थान पर पहुँचती रहती हैं इसके विपरीत अस्थिर नामकर्म के उदय में ये परिवर्तन सही ढंग से न होकर विकृत हो जाते हैं शरीर वात-पित्त-कफ की समायोजना balance रहने से निरोगी रहता है और इनमें कुछ भी distrub होने से रोगी हो जाता है स्थिर नामकर्म में ये सम या स्थिरता बनी रहती है अस्थिर नामकर्म के उदय में यह चलायमान हो जाता है जिससे बहुत जल्द रोग उत्पन्न होते हैं जब हमें जुकाम या बुखार आता है तो हम उसका कारण अस्थिर नामकर्म नहीं स्वीकारते बल्कि मौसम आदि बदलना मानते हैं जबकि मौसम तो सबके लिए बदलता है फिर भी effect सिर्फ हमें क्यों होता है? स्थिर नामकर्म के उदय में रोगों के लड़ने की क्षमता भी बनी रहती है कुछ लोग खा-पीकर के भी रोगी बने रहते हैं कुछ लोग बिना खाए हुए भी निरोगी रहते हैं स्थिर नामकर्म स्वास्थ्य और अस्थिर नामकर्म अस्वास्थ्य के लिए कारण है ये दोनों कर्म पर्याप्ति से भी बढ़कर हैं पर्याप्ति तो एक back system है जिसे ये कर्म distrub कर देते हैं वातावरण में हर जगह कोरोना होने के बाद भी यह हमें तभी effect करेगा जब हमारा अस्थिर नामकर्म का उदय होगा