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सावन बृहस्पतिवार में 108 गुना फल देने वाला - गजेंद्र मोक्ष - Gajendra Moksh - Vishnu Bhajan - Mantra 11 месяцев назад


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सावन बृहस्पतिवार में 108 गुना फल देने वाला - गजेंद्र मोक्ष - Gajendra Moksh - Vishnu Bhajan - Mantra

Spiritual Bhakti presents सावन बृहस्पतिवार में 108 गुना फल देने वाला - गजेंद्र मोक्ष - Gajendra Moksh - Vishnu Bhajan - Mantra - Sawan Mantra Click to Subscribe - shorturl.at/adIJQ Song – Gajendra Moksh Channel - Spiritual Bhakti Label - Ganga Cassette मन से है ऊँ नमन प्रभु को जिनसे यह जड चेतन बनता । जो परमपुरुष जो आदि बीज, सर्वोपरि जिसकी ईश्वरता ॥२॥ जिसमें, जिससे, जिसके द्वारा जग की सत्ता, जो स्वयं यही । जो कारण-कार्य परे सबके, जो निजभू आज शरण्य वही ॥३॥ अपने में ही अपनी माया से ही रचे हुए संसार । को हो कभी प्रकट, अन्तर्हित, कभी देखता उभय प्रकार ॥ जो अविद्धदृक साक्षी बन कर, जो परसे भी सदा परे । है जो स्वयं प्रकाशक अपना, मेरी रक्षा आज करे ॥४॥ लोक, लोकपालों का, इन सबके कारण का भी संहार । कर देता संपूर्ण रूप से महाकाल का कठिन कुठार ॥ अंधकार तब छा जाता है, एक गहन गंभीर अपार । उसके पार चमकते जो विभु, वे में मुझको आज संभार ॥५॥ देवता तथा ऋषि लोग नही जिनके स्वरूप को जान सके । फिर कौन दूसरा जीव भला, जो उनको कभी बखान सके ॥ जो करते नाना रूप धरे , लीला अनेक नटतुल्य रचा । है दुर्गम जिनका चरितसिंधु , वे महापुरुष लें मुझे बचा ॥६॥ जो साधु स्वाभवी , सर्व सुहृद वे मुनिगण भी सब सग छोड । बस केवल मात्र आत्मा का सब भूतों से संबंध जोड ॥ जिनके मंगलमय पद दर्शन की इच्छा से वन मे पालन । करते अलोक व्रत का अखंड , वे ही हैं मेरे अवलम्बन ॥७॥ जिसका होता है जन्म नही, केवल होता भ्रम से प्रतीत । जो कर्म और गुण दोष तथा जो नाम रूप से है अतीत ॥ रचनी होती जब सृष्टि किंतु, जब करना होता उसका लय । तब अंगीकृत कर लेता है इन धर्मों को वह यथा समय ॥८॥ उस परमेश्वर, उस परमब्रह्म, उस अमित शक्ति को नमस्कार । जो अद्भुतकर्मा जो अरूप फिर भी लेता बहुरूप धार ॥९॥ परमात्मा जो सबका साक्षी, उस आत्मदीप को नमस्कार । जिसतक जाने में पथ में ही जाते वाणी मन चित्त हार ॥१०॥ बन सतोगुणी सुनिवृत्तिमार्ग से पाते जिसको विद्वज्जन । जो सुखस्वरूप निर्वाण जनित, जो मोक्षधामपति, उसे नमन ॥११॥ जो शान्त, घोर, जडरूप प्रकट होते तीनों गुण धर्म धार । उन सौम्य ज्ञान घन निर्विशेष को नमस्कार है, नमस्कार ॥१२॥ सबके स्वामी, सबके साक्षी, क्षेत्रज्ञ ! तुझे है नमस्कार । हे आत्ममूल हे मूल प्रकृति, हे पुरुष नमस्ते बार बार ॥१३॥ इन्द्रिय विषयों का जो दृष्टा, इन्द्रियानुभव का जो कारन । जो व्यक्त असत की छाया में, हे सदाभास ! है तुझे नमन ॥१४॥ सबके कारण निष्कारण भी, हे विकृतिरहित सबके कारण । तेरे चरणों में बारबार है नमस्कार मेरा अर्पण ॥ सब श्रुतियों, शास्त्रों का सारे, जो केवल एक अगाध निलय । उस मोक्षरूप को नमस्कार, जिसमें पाते सज्जन आश्रय ॥१५॥ जो ज्ञानरूप से छिपा गुणों के बीच, काष्ठ में यथा अनल । अभिव्यक्ति चाहता मन जिसका, जिस समय गुणों में हो हलचल ॥ मैं नमस्कार करता उनको, जो स्वयं प्रकाशित हैं उनमें । आत्मालोचन करके न रहे जो विधि निषेध के बंधन में ॥१६॥ जो मेरे जैसे शरणागत जीवों का हरता है बंधन । उस मुक्त अमित करुणा वाले, आलस्य रहित के लिये नमन ॥ सब जीवों के मन के भीतर, जो हैं प्रतीत प्रत्यक्चेतन । बन अन्तर्यामी, हे भगवन! हे अपरिछिन्न ! है तुझे नमन ॥१७॥ जिसका मिलना है सहज नही, उन लोगों को जो सदा रमें । लोगों में, धन में, मित्रों में, अपने में, पुत्रों में, घर में ॥ जो निर्गुण, जिसका हृदय बीच जन अनासक्त करते चिन्तन । हे ज्ञानरूप ! हे परमेश्वर ! हे भगवन ! मेरा तुझे नमन ॥१८॥ जिनको विमोक्ष-धर्मार्थ काम की इच्छा वाले जन भज कर । वांछित फल को पा लेते हैं; जो देते तथा अयाचित वर ॥ भी अपने भजने वालों को, कर देते उनकी देह अमर । लें वे ही आज उबार मुझे, इस संकट से करुणासागर ॥१९॥ जिनके अनन्य जन धर्म, अर्थ या काम मोक्ष पुरुषार्थ-सकल । की चाह नही रखते मन में, जिनकी बस, इतनी रुचि केवल ॥ अत्यन्त विलक्षण श्री हरि के जो चरित परम मंगल सुन्दर । आनन्द-सिंधु में मग्न रहें , गा गा कर उनको निसि-वासर ॥२०॥ जो अविनाशी, जो सर्व व्याप्त. सबका स्वामी, सबके ऊपर । अव्यक्त किन्तु अध्यात्म मार्ग के पथिकों को जो है गोचर ॥ इन्द्रियातीत अति दूर सदृश जो सूक्ष्म तथा जो हैं अपार । कर कर बखान मैं आज रहा, उस आदि पुरुष को ही पुकार ॥२१॥ उत्पन्न वेद, ब्रह्मादि देव, ये लोक सकल , चर और अचर । होते जिसकी बस, स्वल्प कला से नाना नाम रूप धरकर ॥२२॥ ज्यों ज्वलित अग्नि से चिंगारी, ज्यों रवि से किरणें निकल निकल । फिर लौट उन्ही में जाती हैं, गुण कृत प्रपंच उस भाँति सकल ॥ मन बुद्दि सभी इन्द्रियों तथा सब विविध योनियों वाले तन । का जिससे प्रकटन हो जिसमें, हो जाता है पुनरावर्त्तन ॥२३॥ वह नही देव, वह असुर नही, वह नही मर्त्य वह क्लीब नही । वह कारण अथवा कार्य नही, गुण, कर्म, पुरुष या जीव नही ॥ सबका कर देने पर निषेध, जो कुछ रह जाता शेष, वही । जो है अशेष हो प्रकट आज, हर ले मेरा सब क्लेश वही ॥२४॥ कुछ चाह न जीवित रहने की जो तमसावृत बाहर-भीतर – ऐसे इस हाथी के तन को क्या भला करूंगा मैं रखकर ? इच्छा इतनी-बन्धन जिसका सुदृढ न काल से भी टूटे । आत्मा की जिससे ज्योति ढँकी, अज्ञान वही मेरा छूटे ॥२५॥ उस विश्व सृजक , अज, विश्व रूप, जग से बाहर जग-सूत्रधार । विश्वात्मा, ब्रह्म, परमपद को, इस मोक्षार्थी का नमस्कार ॥२६॥ निज कर्मजाल को, भक्ति योग से जला, योग परिशुद्ध हृदय । में जिसे देखते योगीजन , योगेश्वर प्रति मैं नत सविनय ॥२७॥ हो सकता सहन नही जिसकी त्रिगुणात्मक शक्ति का वेग प्रबल । जो होता तथा प्रतीत धरे इन्द्रिय विषयों का रूप सकल ॥ जो दुर्गम उन्हें मलिन विषयों में जो कि इन्द्रियों के उलझे । शरणागत-पालक अमित शक्ति हे! बारंबार प्रणाम तुझे ॥२८॥ अनभिज्ञ जीव जिसकी माय, कृत अहंकार द्वारा उपहत । निज आत्मा से मैं उस दुरन्त महिमामय प्रभु के शरणागत ॥२९॥ Click to Subscribe - shorturl.at/adIJQ

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